Natasha

लाइब्रेरी में जोड़ें

राजा की रानी

साधु ने कहा, “सो मैं ठीक नहीं जानता जीजी, मगर हाँ, देश की सेवा करना भी हम लोगों का एक व्रत है।”

“हम लोगों का? तो शायद तुम लोगों का एक दल होगा न, लालाजी?”

साधु कुछ जवाब न देकर चुप बने रहे। राजलक्ष्मी ने फिर पूछा, “लेकिन सेवा करने के लिए सो सन्यासी होने की जरूरत नहीं होती, भाई। तुम्हें यह मति बुद्धि दी किसने, बताओ तो?”

साधुजी ने इस प्रश्न का शायद उत्तर नहीं दिया, क्योंकि, कुछ देर तक किसी की कोई बात सुनने में नहीं आई। दसेक मिनट बाद कान में भनक पड़ी, साधुजी कह रहे हैं, 'जीजी, मैं बहुत ही क्षुद्र सन्यासी हूँ। मुझे यह नाम न भी दिया जाय तो ठीक है। मैंने तो सिर्फ अपना थोड़ा-सा भार फेंककर उसकी जगह दूसरों का बोझ लाद लिया है।”

राजलक्ष्मी कुछ बोली नहीं, साधुजी कहने लगे, “मैं शुरू से ही देख रहा हूँ कि आप मुझे बराबर घर लौटाने की कोशिश कर रही हैं। मालूम नहीं क्यों, शायद जीजी होने की वजह से ही। परन्तु जिनका भार लेने के लिए हम घर छोड़कर निकल आये हैं वे कितने दुर्बल, कितने रुग्ण, कैसे निरुपाय और कितनी संख्या में हैं, यह अगर किसी तरह एक बार जान जातीं, तो उस बात को फिर मन में भी ला नहीं सकतीं।”

इसका भी राजलक्ष्मी ने कुछ उत्तर नहीं दिया; परन्तु मैं समझ गया कि जो प्रसंग छिड़ा है, उसमें अब दोनों के मन और मत के भेद होने में देर नहीं होगी। साधुजी ने भी ठीक जगह पर ही चोट की है। देश की आभ्यन्तरिक अवस्था और उसके सुख, दु:ख, अभाव को मैं खुद भी कुछ कम नहीं जानता; मगर ये सन्यासी कोई भी क्यों न हों, इन्होंने अपनी इस थोड़ी-सी उमर में मुझसे बहुत ज्यादा और घनिष्ठ भाव से सब देखा-भाला है और बहुत विशाल हृदय से उसे अपनाया है। सुनते-सुनते ऑंखों की नींद ऑंसुओं में परिवर्तित हो गयी और सारा हृदय क्रोध, क्षोभ, दु:ख और व्यथा से मानो मथा जाने लगा। पीछे की गाड़ी के अंधेरे कोने में अकेली बैठी हुई राजलक्ष्मी ने एक प्रश्न तक नहीं किया, इतनी बात में से एक भी बात में उसने साथ नहीं दिया। उसकी नीरवता से साधु महाराज ने क्या सोचा होगा सो वे ही जानें; परन्तु, इस एकान्त स्तब्धता का सम्पूर्ण अर्थ मुझसे छिपा न रहा।

'देश' के मानी हैं वे गाँव जहाँ देश के चौदह आने नर-नारी वास करते हैं। उन्हीं गाँवों की कहानी साधु कहने लगे। देश में पानी नहीं है, प्राण नहीं हैं, स्वास्थ्य नहीं है, जंगल की गन्दगी से जहाँ मुक्त प्रकाश और साफ हवा का मार्ग रुका हुआ है- जहाँ ज्ञान नहीं, जहाँ विद्या नहीं, धर्म भी विकृत और पथभ्रष्ट है : मृतकल्प जन्म-भूमि के इस दु:ख का विवरण छापे के अक्षरों में भी पढ़ा है और अपनी ऑंखों से भी देखा है, परन्तु यह न होना, कितना बड़ा 'न होना' है, इस बात को, मालूम हुआ कि, आज से पहले जानता ही न था। देश की यह दीनता कितनी भयंकर दीनता है, आज से पहले मानो उसकी धारणा भी मुझे न थी। सूखे सूने विस्तृत मैदान में से हम लोग गुजर रहे हैं। सड़क की धूल ओस से भीगकर भारी हो गयी है। उस पर गाड़ी के पहियों और बैलों के खुरों का शब्द कदाचित् ही सुनाई दे रहा है। आकाश की चाँदनी पाण्डुर होकर जहाँ तक दृष्टि जाती है वहाँ तक फैल रही है। इसी के भीतर के शीतऋतु के इस निस्तब्ध निशीथ में हम लोग अज्ञात की ओर धीर मन्थर गति से लगातार चल रहे हैं; अनुचरों में से कौन जाग रहा है और कौन नहीं, सो भी नहीं मालूम होता, सभी कोई शीत-वस्त्रों से अपना सर्वाक्ष् ढके हुए चुपचाप पड़े हैं। सिर्फ अकेले सन्यासीजी ही हमारे साथ सजग चल रहे हैं और इस परिपूर्ण स्तब्धता में सिर्फ उन्हीं के मुँह से देश के अज्ञात भाई-बहनों की असह्य वेदना का इतिहास मानो लपटें ले-लेकर जल-जलकर निकल रहा है। यह सोने की भूमि किस तरह धीरे-धीरे ऐसी शुष्क, ऐसी रिक्त हो गयी, कैसे देश की समस्त सम्पदा विदेशियों के हाथ में पड़कर धीरे-धीरे विदेश में चली गयी, किस तरह मातृ-भूमि के समस्त मेद-मज्जा और रक्त को विदेशियों ने शोषण कर लिया, इसके ज्वलन्त इतिहास को मानो वह युवक ऑंखों के सामने एक-एक करके उद्धाटित करके दिखलाने लगा।

सहसा साधु ने राजलक्ष्मी को सम्बोधन करके कहा, “मालूम होता है, तुम्हें मैं पहिचान सका हूँ जीजी। मन में आता है, तुम जैसी बहिनों को ले जाकर तुम्हारी अपनी ऑंखों के सामने तुम्हारे उन सब भाई-बहनों को दिखलाऊँ।”


राजलक्ष्मी से पहले तो कुछ बोला न गया, बाद में रुँधे हुए गले से वह बोली, “मुझे क्या ऐसा मौका मिल सकता है, आनन्द? मैं जो औरत हूँ, इस बात को मैं कैसे भूलूँ, भइया?”

साधु ने कहा, “क्यों नहीं मिल सकता बहन? और, तुम औरत हो, इस बात को ही यदि भूल जाओगी तो कष्ट उठाकर तुम्हें वह सब दिखाने से मुझे लाभ ही क्या होगा?”
♦♦ • ♦♦

साधु ने पूछा, “गंगामाटी क्या तुम्हीं लोगों की जमींदारी है, जीजी?” राजलक्ष्मी ने जरा मुसकराकर कहा, “देखते क्या हो भाई, हम एक बड़े भारी जमींदार हैं।”

अबकी बार जवाब देने में साधु भी जरा हँस पड़ा। बोला, “बड़ी भारी जमींदारी, लेकिन, बड़ा भारी सौभाग्य नहीं है, जीजी।” उसकी बात से उसकी पार्थिव अवस्था के सम्बन्ध में मुझे एक तरह का सन्देह उत्पन्न हुआ, परन्तु राजलक्ष्मी उस दिशा की ओर नहीं गयी। उसने सरल भाव से तत्क्षण स्वीकार करते हुए कहा, “बात तो सच है आनन्द। यह सब जितनी ही दूर हो जाय, उतना अच्छा।”

“अच्छा जीजी, वे अच्छे हो जाँयगे तो फिर तुम अपने शहर को लौट आओगी?”

“लौट जाऊँगी? मगर वह तो बहुत दूर की बात है भाई!”

साधु ने कहा, “बन सके तो अब मत लौटना, जीजी। इन सब गरीब अभागों को तुम लोग छोड़कर चली गयी हो, इसी से तो इनका दु:ख कष्ट चौगुना बढ़ गया है। जब पास थीं तब भी तुमने इन्हें कष्ट न दिया हो सो बात नहीं, मगर दूर रहकर इतना निर्मम दु:ख उन्हें न दे सकी होगी। तब जैसे दु:ख दिया है; वैसे दु:ख बँटाया भी है। जीजी, देश का राजा अगर देश ही में रहे तो देश का दु:ख-दैन्य शायद इस तरह गले तक न भर उठा करे। और, इस 'गले तक भरने' का मतलब क्या है और तुम लोगों को शहर-वास के लिए सर्व प्रकार आहार-विहार का सामान जुटाने का अभाव और अपव्यय क्या है, इस चीज को अगर एक बार ऑंखें पसारकर देख सकतीं जीजी...”

“क्यों आनन्द, घर के लिए तुम्हारा मन चंचल नहीं होता?...”

साधु ने संक्षेप में कहा, “नहीं।”

वह बेचारा समझा नहीं, परन्तु मैं समझ गया कि राजलक्ष्मी ने उस प्रसंग को दबा दिया, महज इसलिए कि उससे सहा नहीं जाता था।

कुछ देर मौन रहकर राजलक्ष्मी ने व्यथित कण्ठ से पूछा, “घर पर तुम्हारे कौन-कौन हैं?”

साधु ने कहा, “मगर घर तो मेरा अब रहा नहीं।”

राजलक्ष्मी फिर बहुत देर तक नीरव रहकर बोली, “अच्छा आनन्द, इस उमर में सन्यासी होकर क्या तुमने शान्ति पाई है?”

साधु ने हँसकर कहा, “अरे बाप रे! सन्यासी को इतना लोभ! नहीं जीजी, मैंने तो दूसरों के दु:ख का थोड़ा-सा भार लेना चाहा है, और सिर्फ वही पाया है।”

राजलक्ष्मी फिर चुप रही। साधु ने कहा, “वे शायद सो गये होंगे, लेकिन अब जरा उनकी गाड़ी में जाकर बैठूँ। अच्छा जीजी, कभी दो-चार दिन के लिए अगर तुम लोगों का अतिथि बनकर रहूँ तो क्या वे नाराज होंगे?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “वे कौन? तुम्हारे भाईसाहब?”

साधुजी ने जरा हँसकर कहा, “अच्छा, यही सही।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “और मैं नाराज हूँगी या नहीं, सो तो पूछा ही नहीं। अच्छा, पहले चलो तो एक बार गंगामाटी, उसके बाद इस बात का विचार किया जायेगा।”

साधुजी ने क्या कहा, सुन न सका, शायद कुछ कहा ही नहीं। थोड़ी देर बाद मेरी गाड़ी में आकर पुकारा, “भाई साहब, आप जाग रहे हैं?”

मैं जाग ही रहा था, पर कुछ बोला नहीं! फिर वे मेरे पास ही थोड़ी-सी जगह निकालकर अपना फटा कम्बल ओढ़कर पड़ रहे। एक बार तबियत तो हुई कि जरा खिसककर बेचारे के लिए थोड़ी-सी जगह और छोड़ दूँ, परन्तु हिलने-डुलने से कहीं उन्हें शक न हो जाय कि मैं जाग रहा हूँ या मेरी नींद उचट गयी है और इस गम्भीर निशीथ में फिर एक बार देश की सुगम्भीर समस्या की आलोचना होने लगे, इस डर से मैंने करुणा प्रकट करने की चेष्टा तक न की।

   0
0 Comments